चलती है तो उसके मन में क्या क्या चलता है
वो सोचती है.. उसका अस्तित्व, उसकी यात्रा,
उसका संघर्ष और उसका समर्पण..
हर बूँद को कहाँ नसीब होती है सीप और ना हर बूँद को मिल पाती हैं फैली हुई हथेलियाँ..
और कहाँ हर बूँद के नसीब में होती है धूल..
इतनी लंबी यात्रा.. बादल से बिछड़ने का वियोग कैसे
सहन करती है वो एक बूँद ?
वो चाहती है गिरना किसी ऐसे बीज पर जो अभी रोपा गया हो जमीन में, वो चाहती है उन हथेलियों
का स्पर्श जो प्रेम के आंसू पोछते पोछते खारे हो चुके हों
वो चाहती है उस नदी की सूखी तलहटी को स्पर्श करना जो बस समुद्र से मिलने के पहले कुछ दूर पर सूख गई थी
तुम्हें पता है वो बूँदें भी कितनी शौभाग्यशाली होती हैं
जो आकाश की गोद में उड़ रहे बादलों को छोड़ कर
इस पृथ्वी को, मंदिरों के शिखरों को, फैली हथेलियों पर गिरती है..
प्रेम में साथ चल रहे दो महबूब को , धूल से धूमिल हुए पत्तों को, सूखे एहसासों को, अनकहे अल्फाजों को
पंछियों के पंखों को और समुद्र में प्यासी उस सीप को जब स्पर्श करती है..
.. तो कहीं ना कहीं वो स्पर्श तुम्हारे स्पर्श से मिल जाता है..
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