चला जा रहा हूं, सुबह से कई सौ किमी .. जेहन में अजीब उथल पुथल मची हुई है, सारे विचार गुत्थमगुत्था हैं .. कुछ भी खास याद नहीं, दोपहर एक पेड़ मिला, उसकी छांव में भी धूप थी .. उसी छांव में कभी ख्वाब बसा करते थे .. आस पास तैरती भीड़, जलती धूप के नीचे चलते फिरते लाशों के ढेर, सरों को कलम करने का दौर, लहराते काले धुएं को काटती चीखें, और हर तरफ खून ही खून .. मौत एक झटके में या बूंद बूंद बहाने से या फिर इन दोनो के बीच कहीं..
मेरी बेतरतीबी बढ़ गई, चक्कर काटते हुए चील की तरह एक ही वाकये को बार बार चीड़ कर देखना, बार बार सोचना कि गलत मोड़ कब कहां कैसे लिया गया.. .. चाकू भोंक दिया गया अब बस उसे मरोड़ना बांकी है .. जरूरी होने से फालतू होने तक का सफर एकाध हफ्ते में काटा जा सकता है..
उथलपुथल धीमा पड़ा, शहंशाह फिर गद्दी पर बिठा दिए गए , गद्दारों का सिर कलम कर दिया गया ..
युद्धविराम की घोषणा .. पराजित राजा ने स्वयं को हथकड़ी पहना कर शहंशाह के सामने पेश किया .. संधि पर हस्ताक्षर समय के हुए ..
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