सोमवार, 22 अगस्त 2022

मैनपाट - गिरेबान खोले बैठे पहाड़

जब से याद है तब से पेड़ों, पहाड़ों, नदियों से मेरा इश्क रहा है.. स्कूल से भाग कर नदी पार कर के उस पार के पहाड़ों से मिलने चला जाता था.. बहुत पहले से मैं पेड़ों के गले मिलता रहा हूं.. फिर वापस लौटने पर स्कूल में मास्टर से और घर में हेडमास्टर से पिटाई.. लेकिन कोई बात नहीं, घर से भाग कर इश्क करोगे तो दुनियावाले तो एतराज करेंगे ही..
मैं लगभग हर दिन पहाड़ों, नदियों के साथ अपनी अगली मुलाकात की तैयारी में ही रहता हूं.. दिन गिनता रहता हूं और फिर काउंटडाउन शुरू और मैं कूद पड़ने को तैयार.. मैने शुरुआत में ही तय कर लिया था कि जॉब ऐसी करूंगा जिसमे मुझे काम से भाग कर कहीं जाना ना पड़े.. मेरी जिंदगी तो साथ ही चलनी थी.. आंखें जितना देख लेती हैं, कोई कैमरा या लेंस उसे नहीं दिखा सकता.. हर ट्रेवल ने मुझे नए अनुभव दिए, हर बार मैं मालामाल होकर लौटा.. मेरे पास वैसे भी इन मोमेंट्स के अलावा कुछ नहीं ..
ये एक ऐसा दिन था जब मैं जंगल में ही रहना चाहता था, थकने से खुद को मना कर रखा था.. प्रसून से ही मुझे ब्रांडेड टूर और अनजाने रास्तों पर चलने का फर्क समझ में आया.. उन्होंने कह कह कर इतने जंगल भर दिए थे मुझमें.. उन सभी को आज आजाद कर देना था.. बिना मंजिलों के रास्ते ज्यादा दूर तक साथ चलते हैं..
जब पहुंचे, सूरज डूब ही रहा था.. हमने पहाड़ों के ऊपर से देखा वो नीचे चला गया.. सुबह निकलेगा तब तक पूरी धरती भी आधा घूम चुकी होगी.. एक आर्मी ट्रेनिंग कैंप पास से गुजरा और एक जवान दोनो हाथों से रायफल को सिर के ऊपर उठाए भागता नजर आया.. ये सजा थी, किसी मामूली से गलती की.. ये जवान तैयार हो रहा है.. आगे आतंकवादियों से नबटेगा, बाढ़ में फंसे लोगों को जान पर खेल कर बचाएगा, बोरवेल में गिरे बच्चे को रेस्क्यू करेगा, यात्रियों को धाम की सुरक्षित यात्रा कराएगा, हमें मुस्कुराने की वजहें देगा और हम उसे एक थैंक्यू भी नहीं कहेंगे.. 
आठ बजे ही खाना तैयार.. देहाती चिकेन, चावल और प्याज.. और स्वाद.. खाने के बाद अब थोड़ी पड़ोस से पहचान.. लोग, उनके घर, उनकी फसलें, उनके खतरे, उनकी जिंदगी.. इंदिरा गांधी के बसाए तिब्बतियों से बड़ी ईर्ष्या हुई.. इस जगह को छत्तीसगढ़ का शिमला कहते हैं.. बर्फ और मॉल रोड को छोड़ दें तो बांकी सब है यहां.. और शिमला से ज्यादा है..  
उनकी बनाई काली चाय, और बातें चल रही थी .. जल रही आग में रह रह कर लकड़ियों के चटकने की आवाज को सुनता और लपटों को देखता मैं चाय का मग हाथ में पकड़े गर्माहट महसूस करता रहा.. बूढ़ी दादी आई.. गुलाबी गाल, आखों में इकट्ठा सदियों पुरानी मोहब्बत.. माथे पर झुर्रियों से लिखी उम्र की दास्तान.. नमस्ते जी !.. मेरा पूरा शरीर झनझना गया.. रेशे रेशे में आशीर्वाद भर लिया..
तय हुआ कि सुबह ही जंगल की ओर निकल जायेंगे लेकिन जोरदार बारिश ने सुबह से पहले ही जगा दिया.. तैयार हो कर हम निकल पड़े.. शुरुआत से ही फिसलन महसूस करने लगे तो पैर को दबा कर चलना शुरू किया.. पगडंडियों पर फिसलन ज्यादा थी तो उसके बराबर की घास पर चलने लगे.. बारिश के कारण कहीं कोई चिड़िया नजर नहीं आ रही थी और इतनी ऊंचाई पर ज्यादा जानवरों के भी होने की गुंजाइश नहीं थी.. लेकिन एक दो बार कुछ लकड़बग्घे दूर भागते नजर आए.. तेजी इतनी कि यूं पलक झपकते गायब.. ये तो सबसे तेज भागने वाला जानवर भी नहीं.. 
हवाएं जब पत्तों को होठों में लेती है, वो सिसकी पूरे जंगल में फैल रही थी.. और उसके साथ रिदम में बजते बारिश का गिरना.. जंगल में मौशिकी का एक समां सा बंध गया था.. यहां शोर एक संगीत है.. बहुत खूबसूरत है ये जगह.. जब तक रहा, बारिश नहीं रुकी.. बस वॉल्यूम जिसके पास था वो उसे तेज और और धीमा करता रहा.. मेरे पैर और जिस्म लिपटते सिसकियों में भींगते बढ़ते रहे.. कुछ दूर तो एक दो पेड़ भी हमारे साथ चले.. फिर वे थक गए क्योंकि मेरे साथ चलने को सामने दूर तक फैला मैदान आ गया.. आंखें जहां तक देख सकती थी वहां तक एक बड़ी सी पेंटिंग.. किसी ने बिछा रखा था हरे घास का कंबल.. थोड़ी ठंड तो थी..
चेहरे और जिस्म से टकराती हवा जेहन को फिल्टर कर रही थी.. तेज इतनी कि लगा साथ उड़ा ले जायेगी.. मैने शरीर को पहले ही ऑटो पायलट पर डाल रखा था.. चलते गए और जंगल घना होता गया.. अचानक कुछ शोर सा सुनाई देने लगा.. पहले लगा यह हवा के पेड़ों से टकराने की आवाज है लेकिन जैसे जैसे आगे बढ़ते गए शोर भी बढ़ता गया.. हमे एक झरना दिखने लगा था.. बारिश ने तो भिगो ही रक्खा था लेकिन अब तो नए सिरे से भींगना था.. झरना करीब तीन चार सौ फीट की ऊंचाई से गिर रहा था.. उत्सुकता बढ़ गई.. उस जगह को देखना है जहां से ये झरना गिर रहा है.. साथ आए लड़के ने बताया कि वो भी वहां नहीं गया कभी.. खतरा बढ़ गया.. और उत्सुकता भी.. लड़के ने ऊपर ट्रेक करने के जोखिम के बारे में फिर से आगाह किया और यह बात वो अपने मापदंडों के हिसाब से मुझे तौलकर बता रहा था.. लेकिन इरादा तो कर लिया था, तो अब वहां तक पहुंचना था.. खड़ी चढ़ाई, फिसलन और सेफ्टी गियर के रूप में हिम्मत और सावधानी के अलावा कुछ नहीं.. लेकिन ऊपर चढ़ने के बाद जो नजारा दिखने वाला था उसके सामने ये जोखिम कुछ नहीं..
एक कदम और .. इससे ऊपर आस पास कुछ नहीं.. कई पहाड़ मेरे सामने बिखडे पड़े हैं.. नीचे जो पेड़ मुझे बौनेपन का अहसास करा रहे थे, खुद बौने नजर आ रहे थे.. झरने की धार पतली हो गई थी.. और इंसान का बनाया कुछ भी नजर नहीं आ रहा था.. आज मैं ऊपर आसमां नीचे..

कल्पवृक्ष का नाम सुना है ?.. सच है.. होता है..

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