सोमवार, 11 अप्रैल 2022

विंध्य के पार चांद – माटी_से चांदनी


शहर में महज सांस लेने को हम जिंदा रहना समझ लेते हैं, गांवों में धरती के चेहरे से पहचान होती है । विंध्य की आगोश में निहायत ही ठेठ और संपन्न सुविधाओं को मिलाकर बने एक बसाहट "माटी_से" जाने का मन बना । उपमिता की ही स्कैनिंग ने हमें भरपूर सुकून की जगह पहुंचाया और वहां के विश्वकर्मा राठौर दंपति से भी मिलवाया और उनके अनोखे शिल्प से भी ।
शहर की सासों को वहीं छोड़ प्रसून साइकिल से और हम बांकी लोग कार से निकल पड़े – यह चुनाव मशीन और मानव के बीच की नहीं, आराम और एक्सप्लोर के बीच का था । वैसे साइकिल और कारें नहीं देखती, हम देखते हैं ; कई बार सिर्फ देखना परखना काफी नहीं होता, उसके लिए नए सिरे से जीना जरूरी होता है । हर निगाह कुछ खोजती है – हर खोज एक साहस है ।
थोड़ा आगे पीछे हम पहुंचे, वहां रुस्तम और गब्बर ने मेटल डिटेक्टर का काम किया, ये दोनो कुत्ते उस बसाहट के बच्चे भी थे और चौकीदार भी, हम उनके एक दिन के मेहमान । उड़हल के अर्क से बना शरबत, जमीन पर ढलान लेती बिछी हुई मखमली हरियाली, मिट्टी का घर, चूल्हा, चौका, बर्तन – हम वहां पहुंचे और लगा वहीं के होकर रह गए, पीछे छूटा शहर बहुत पीछे छूट गया ।
राठौड़ सर और मैडम इस तरह घुल मिल गए बिना किसी चमक धमक के – ना कोई कृत्रिम अवरोध, ना कोई नियम कानून, ना कोई निर्देश – हम जैसे जीना, रहना, देखना चाहें; बिना किसी के दिए स्वतः ही वो आजादी हमें हासिल हो गई ।
बरामदे में दोपहर हुई और फिर शाम – हम वहां के पेड़, पत्थर, पहाड़, जंगल, भगवान से मिलने निकल पड़े । सब देख लिया, सब जी लिया, सबक की तरह सब पढ़ लिया, हर्फ हर्फ याद हो गया ।
जैसे पर्दा उठता है और सिनेमा शुरू; वैसे ही अंधेरे को धकेलकर विंध्य के पार से कुछ अलौकिक सा उगा – चांद । चांद को पता था मेरा दिल कहां है, वरना कैसे उसने सटीक वार किया ; जीवन में पहली बार चांद को उगते देखा.. मैने अपना कटोरा आगे कर दिया और भर ली उसकी चांदनी । चांद ने भी खैरात देने में कोई कमी नहीं रखी .. हम मालामाल होकर नजरों, कैमरे, दिल में उसे कैद करते रहे ..
फिर कविता, कहानी, संस्मरण – सबने अपने बताए, दूसरों के सुने और मुझे कुछ वक्त खुद के लिए मिल गया तो साथ हो लिया ।
सुबह जाने का समय – पिछले शाम की यादें मेरे जेहन से वैसे ही लिपटी रही जैसे बेल, दरख़्त के साथ ..

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